Monday, November 18, 2013

अमिताव कुमार

अमिताव कुमार पसंद हैं मुझे। आप भी सुनें।


Tuesday, May 14, 2013

डल लेक का तैरता सब्‍जी बाजार

 डल लेक में रोज सुबह शिकारे पर लगता है सब्जियों की खरीद-बिक्री का बाजार...डल लेक जाएं तो यह भी देख आएं। सुबह 5 बजे हाउसबोट से निकलना होगा। यह बाजार 6.30 तक उठ जाता है।


Monday, April 01, 2013

जिंदगी का हरा हिस्‍सा है जेएनयू



-अजय ब्रह्मात्‍मज
भारतीय भाषा केन्‍द्र (1980-86)

हम कहीं भी जा रहे होते हैं और रास्‍ते में आ जाता है जेएनयू ... चौबीस साल पहले जेएनयू कैंपस छोड़ने के बाद भी यह स्थिति बनी हुई है। साल में दो दफे तो जेएनयू आना-जाना हो ही जाता है। बाज दफा सिर्फ वहां की बिल्डिंगों, होस्‍टल, कैंटीन, गंगा ढाबा, कमल कॉम्‍प्‍लेक्‍स या लायब्रेरी को ही पता चल पाता है कि हम आए थे और अगली यात्रा तक के लिए वहां की हवा अपनी सांसों में भर ले गए। देखा, दिल में उतारा और भारी कदमों से लौट आए। ठीक वैसे ही जैसे कि कोई अपने घर से निकलता है बार-बार लौटने के लिए। मेरे कदम तो खुद-ब-खुद मुड़ जाते हैं जेएनयू की तरफ। और कुछ नहीं तो एक चक्‍कर ही लगा लो। सुन लो अपनी आवाज, जो कैंपस के कोनों-अंतरों में आज भी फंसी हुई है। पहुंचते ही गूंजती है और याद आ जाते हैं हवा में उछलते हाथ और तने चेहरे। मेस में चलने वाली देर रात की बहसें। यूनियन की जीबीएम...जोश में चलता जुलूस... वह लड़ाकू चाहत आज भी जिंदा है। तभी तो गाहे-बगाहे झड़प हो जाती है सभी से।
तीस साल पहले जून के महीने में अमिताभ बच्‍चन (मेरा दोस्‍त, जिसे फिल्‍मी अमिताभ बच्‍चन की वजह से अपना नाम बदल कर सिर्फ अमिताभ करना पड़ा) और चंद्र प्रकाश झा उर्फ सुमन के साथ गंगा हास्‍टल के कमरे में घुसते हुए कहां एहसास था कि यह कैंपस मेरी सोच-समझ और दुनिया को इस कदर रोशन कर देगा। उसके पहले भी किताब और क्‍लास के बाहर संगत और आवारगी में जिंदगी के सबक मिले थे, लेकिन उसे दिशा और सारगर्भित दिशा मिली जेएनयू में। मालूम नहीं, अब क्‍या हाल है? तब कोई आप की अज्ञानता पर हंसता नहीं था। वाया दरभंगा सहरसा जिले से आए मुझ जैसे जिज्ञासु के सवालों के जवाब कोई भी दे देता था। हर शख्‍स सोच और जिंदगी का अगला पन्‍ना पढ़ कर सुनाने के लिए बेताब नजर आता था। ब खुली किताब थे। कुछ पूछने के लिए कभी एक्‍सक्‍यूज मी कह कर इजाजत नहीं लेनी पड़ती थी। आप बेझिझक सीनियर के कंधे पर हाथ रख कर उसे सलाह दे सकते थे और किसी जूनियर के सवाल से सीख सकते थे। सभी साथी थे और कुछ कामरेड...
सड़क पर बाएं चलना तो भारत में जन्‍म लेते ही आदमी सीख लेता है, लेकिन जिंदगी में वामपंथ की दीक्षा जेएनयू में मिली थी। कोई क्‍लास नहीं लगता था, प्रवचन और लेक्‍चर नहीं होता था और न ही कोई ट्रेनिंग... बस सोहबत, संगत और चाय की चुस्कियों के बीच वाम विचारों ने बिहार के पिछड़े और जड़ इलाके से आए मुझ जैसे स्‍वप्‍नजीवियों के मानसिक धरातल को कुरेदा ऐसे बीज बोए कि मौसमों के बदलने और साल दर साल बीतने के बाद भी सोच की फसल लहलहाती रहती है। जेएनयू की संगत, साथ और समझ ने इतना मजबूत बना दिया कि हर परिस्थिति हारती गई। हम जहां भी रहे, सिर उठा कर विजयी मुद्रा में मुस्‍कराते रहे। वह संबल, वह आत्‍मबल और हर समस्‍या का निश्‍छल हल जेएनयू के दोस्‍तों ने ही सिखाया।
    उन दोस्‍तों में कुछ आज भी साथ हैं। कुछ से मुलाकात होती है, तो कुछ से सिर्फ बात होती है। सोशल नेटवर्किंग के इस दौर में दूर-दराज के दोस्‍तों से चैट-कमेंट और स्‍टेटस् के जरिए हाल-समाचार मिलता रहता है। सभी एक-दूसरे से अद्भुत जुड़ाव महसूस करते हैं। इसमें कृत्रिमता और बनावट नहीं है। अद्भुत पारदर्शी साफगोई है, जो मुझे अभी तक किसी और इंस्‍टीट्यूशन या कैंपस के स्‍टूडेंट में नहीं दिखाई पड़ी। वैचारिक और राजनीतिक भिन्‍नता के बावजूद हमारा लगाव किसी फेविकोल से ज्‍यादा मजबूत... जेएनयू जोड़ता है और जोड़ के निशान नहीं रहने देता। जिंदगी के समुद्र में तैरते हुए अलग होने पर भी हम सभी जुड़े रहते हैं और कोई अनायास या जबरदस्‍ती का खिंचाव भी महसूस नहीं होता। सभी आजाद हैं, लेकिन वक्‍त-जरूरत पड़ने पर जेएनयू के रिश्‍ते की डोर पकड़ कर कहीं भी पहुंच सकते हैं। यह रिश्‍ता... यह दोस्‍ती... यह हमदर्दी... यह सहभागिता अटूट और निरंतर है।
जेएनयू में बीते सालों पर कुछ भी कैसे लिखा जा सकता है ? मेरे लिए तो वे साल बीते ही नहीं, क्‍योंकि हम सभी आज भी अपने दैनंदिन जीवन में उन सालों को जीते हैं। वे पल हमारी जिंदगी का हरा हिस्‍सा हैं। आक्‍सीजन मिलता है वहां से... यह अजीब सी बात लग सकती है, लेकिन जेएनयू वहां के छात्रों की जिंदा सच्‍चाई है।
कोई चाहे तो रिसर्च कर सकता है। यह मेरा दावा है कि यह देश-दुनिया आज जैसी है, वैसी नहीं रहती... अगर जेएनयू न होता।यह दुनिया कुछ और बदतर और बदहाल होती। हम ने इसकी बदसूरती कम की है और आज भी हम सभी जिंदगी, समाज और दुनिया को तरतीब देने में लगे हैं। यह सिर्फ और सिर्फ जेएनयू का ही परिणाम है कि उम्‍मीद अभी तक जिंदा है, क्‍योंकि हम सभी के दिल सिर्फ अपने लिए आज भी नहीं धड़क रहे हैं।