Wednesday, June 03, 2009

४ जून १९८९ को याद कसरें तो...

4 जून, 1989 से कुछ हफ्ते पहले से बीजिंग में असंतोष और विरोध की सुगबुगाहट महसूस की जा सकती थी। बीजिंग और एक-दो अन्य विश्वविद्यालय के छात्रों ने लोकतांत्रिक मांगों को लेकर हड़ताल आरंभ कर दी थी। सुधारवादी कम्युनिस्ट नेता हू यायोपिंग के निधन को छात्रों, बुद्धिजीवियों और कम्युनिस्टों से नाराज राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने अपने लोकत्रांत्रिक अभियान के प्रस्थान के रूप में चुना। 15 अप्रैल को हू यायोपिंग की मौत के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए छात्रों के साथ नागरिकों की भीड़ भी थ्येन आन मन स्क्वायर पर स्थित शहीद स्मारक पहुंची। शहीद स्मारक के स्तंभ से सटा कर रखी हू की तस्वीर पर अनगिनत फूल मालाएं चढ़ीं। उस रात निरभ्र आकाश में चमकता चांद लोगों के शोक और संताप को ठंडे भाव से निहारता रहा था। अगले दो-तीन दिनों तक श्रद्धांजलि का तांता लगा रहा। बीस साल पहले के उन दिनों को याद करें तो दस सालों से चल रहे आर्थिक सुधारों के बावजूद देश की आर्थिक स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं आ पाया था। दूसरी तरफ पिछले दस सालों में मिली सीमित राजनीतिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कम्युनिस्ट पार्टी के विरोधियों को यह भ्रम हो गया था कि उनकी लोकतंत्र की गुहार पश्चिमी देश, खास कर अमेरिका सुनेगा। वह चीन पर अंकुश लगाएगा, जो कालांतर में कम्युनिस्ट पार्टी की समाप्ति का कारण बनेगा। हमेशा की तरह अमेरिकी एजेंसियां चीन में सक्रिय थीं।
इस दौर में कम्युनिस्ट प्रशासन पहले की तरह निरंकुश न होकर एक उदार छवि पेश करने के साथ अपने आर्थिक सुधारों और विदेशी पूंजी निवेश के लिए सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश में था। कतिपय विरोधियों को यह स्थिति अपने अनुकूल लगी थी। 21 अप्रैल को हू के अंतिम संस्कार से पहले 20 अप्रैल को चुंगनानहाए के सामने बैठी भीड़ को प्रशासन ने जबरन हटा दिया। छात्रों ने 21 अप्रैल तक बीजिंग विश्वविद्यालय में हड़ताल कर दी। इस हड़ताल को कुछ शिक्षकों का भी समर्थन मिला। दूसरे विश्वविद्यालय और कैंपसों में भी विरोध की सुगबुगाहट महसूस की गई। शहीद स्मारक के पास के छोटे से हिस्से में दिन-रात भीड़ लगी रही। छात्रों की हड़ताल ने बाद में क्रमिक भूख हड़ताल का रूप ले लिया। अभियान को नागरिकों का मिलता समर्थन और स्थिति बिगड़ती देख कम्युनिस्ट पार्टी और प्रशासन ने आवश्यक कदम उठाए। वे पहले की तरह इस बार जबरदस्ती अभियान को दबाना नहीं चाहते थे। उन्हें उम्मीद थी कि परस्पर बातचीत से विरोध का उफान समाप्त हो जाएगा। उन्होंने पार्टी के नेता चाओ चियांग को छात्र नेताओं से बातचीत करने के लिए भेजा। चाओ चिंपाग ने छात्रों से बातचीत में कहा था कि तुम सब जवान हो, क्यों भूख हड़ताल कर अपनी जान दे रहे हो? हम बूढ़े हो चुके हैं। उनके इस कथन को व्यापक कवरेज मिला। ऐसा लगा कि शायद कोई राह निकलेगी, लेकिन उसके बाद ही कम्युनिस्ट प्रशासन ने सख्त रवैया अपनाया। 20 मई को मार्शल ला लागू कर दिया गया। छात्रों को लगा कि अब वे विजय के निकट हैं। 30 मई को प्लास्टर आफ पेरिस से बनी लोकतंत्र की देवी की श्वेत मूर्ति थ्येन आन मन स्क्वायर में आ गई। अमेरिकी लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाने के पर्चे बांटे गए और शहर के विभिन्न इलाकों और शैक्षणिक संस्थाओं से जुलूस आने लगे। देखते-देखते थ्येन आन मन स्क्वायर झंडे, बैनर, कार्टून, पर्चो और लोगों से भर गया।
आखिरकार अभियान को दबाने की अंतिम मुहिम 3 जून को शुरू हुई। बगैर किसी घोषणा के टैंक से लैस सेना थ्येन आन मन स्क्वायर में घुसी। सेना ने चारों दिशाओं से एक साथ मार्च किया। गोलियां चलीं। लोग मारे गए। छात्र नेता भाग खड़े हुए। चूंकि पूरा अभियान एक उफान की तरह था और उसके पीछे कोई ठोस राजनीतिक सोच नहीं थी, इसलिए देखते ही देखते आंदोलन बिखर गया। कम्युनिस्ट प्रशासन ने अपनी तरफ से उस अभियान का कोई निशान शेष नहीं रहने दिया। निश्चित रूप से चीन के नेतृत्व ने उस आंदोलन और अभियान का दमन किया। 4 जून, 1989 की घटना के परिप्रेक्ष्य में यह भी उल्लेखनीय है कि उस आकस्मिक विरोध को दबाने के बाद चीन राजनीतिक और आर्थिक रूप से बिखरने से बच गया। अन्य कम्युनिस्ट देशों की तरह चीन में अस्थिरता नहीं आई। उस घटना को बीस साल हो गए और लगभग इतने ही साल हुए अंतरराष्ट्रीय राजनीति से दूसरे धु्रव को समाप्त हुए। एकध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय समीकरण के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। अगर 4 जून, 1989 को चीन के असंतुष्ट विजयी हो गए होते तो पूरा एशिया आज की स्थिति में नहीं होता। शायद भारत के लिए खतरे और बड़े एवं खतरनाक होते।

Monday, October 09, 2006

khul ke likho aur padho

khul ke likho aur padho

amitabh bachchan

bachchan na chahen to sawalon ke jawab nahi dete.abhi 7 october ko gabbar singh ke look ko kholne ki press conf mein maine unse poocha ki khalnayak mein kya avagun hona chahiye to woh khalnayak ke swaroop batane lage.jawab dalne pe jor dala to kaha ki aap bahar miliye.amitabh apni abhinay prakriya ke baare mein nahi batate aur apni kamyabi ka shrey directors aur audience ko dekar chuppi sadh lete hain.unhe kuch batana chahiye taki baad ki pidhi kuch seekh sake.

Saturday, October 22, 2005

hrithik accident

hrithik ka accident ek badi ghatna hai.gaur kare agar krish ka nirmata aur nirdeshak koi doosra hota to kitna hungama hota.yeh to achi baat hai ki baap-bete ki film thi.