Sunday, September 27, 2009

रोम जिंदा है, आज भी

-अजय ब्रह्मात्मज


रोम जाने के पहले मेरे मन में स्वाभाविक जिज्ञासा और उत्सुकता थी। मैंने रोम जा चुके परिचितों, मित्रों और रिश्तेदारों से अपनी खुशी बांटते हुए रोम के बारे में पूछा था। यकीन करें रोम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, वहां के वास्तुशिल्प और प्राचीन इमारतों, महलों और चर्च के साथ लोगों ने आधुनिक रोम के बारे में भी बताया था। एक तरफ उन्होंने रोम की ऐतिहासिक विरासत के साक्षात्कार से धन्य होने की अग्रिम बधाई दी थी तो दूसरी तरफ स्पष्ट शब्दों में सावधान किया था कि वहां चोरी और उठाईगीरी आम है। आंख बंद और डब्बा गायब मुहावरे की प्रतिध्वनि उनकी हिदायतों में थी। और रोम जाने के बाद उनकी हिदायत याद भी आई।

भारत के कुछ पत्रकार मित्रों के साथ मैंने सडक के रास्ते रोम में प्रवेश किया था। मुझे हमेशा लगता रहा है कि अगर आप निजी व्यवस्था से अपनी सवारी लेकर किसी शहर में प्रवेश करते हैं तो वह लगभग चोर रास्ते या पिछले रास्ते से घर में दाखिल होने जैसा होता है। शहर आपका औपचारिक स्वागत नहीं करता। औपचारिक स्वागत एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर ही होता है। वहां आगंतुकों को औपचारिकताएं पूरी करने के साथ शहर से हाथ मिलाने का मौका मिलता है। मैं तो सुबह-सुबह ऊंघते शहर में चुपके से घुस आया था और जब तक शहर अंगडाई लेकर दिन के लिए खडा हुआ, मैं शहर से गलबहियां किए उसकी गलियों में घूम रहा था।

हम लोग रोम के पडोसी शहर नैपोली से आए थे। इरादा यह था कि होटल में जल्दी से चेक इन कर शहर घूमने निकल जाएंगे। चूंकि वक्त कम था, इसलिए हमारे मेजबान की योजना थी कि हम सभी मिनी वैन से शहर की सरसरी तौर पर यात्रा कर लेंगे। मेजबान के मंसूबे पर हमने पानी फेर दिया था। हमने तय किया कि हम शहर तसल्ली से घूमेंगे। वहां की सडकों पर चलेंगे। वास्तु व इमारतों को छुएंगे। लोगों से बातें करेंगे। हाथ और आंख मिलाएंगे और मुस्कराएंगे। एक दोस्त की टिप्पणी थी कि दूसरे देशों की तरह यहां के लोग अपरिचितों को देख कर मुस्कराते नहीं है। तभी पास आकर एक मोटरसाइकिल रुकी। उस पर दो नौजवान बैठे थे। मैंने अपना कैमरा उनकी तरफ किया तो वे पलटकर मुस्कराए और उन्होंने हाथ हिलाकर अभिवादन भी किया। शायद मुस्कराहट भी इश्क की तरह है। दोनों सिरे से आग लगे तभी इसका आदान-प्रदान होता है।

बचपन से सुनता आ रहा था यूनान, मिस्त्र, रोमां सब मिट गए जहां से, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। इन पंक्तियों का असर रूहानी था। हमने सोच लिया था कि रोम अब सिर्फ इतिहास के पन्नों या पर्यटन सूचना के निमित्त खींची गई तस्वीरों में कैद है। होगा कोई संग्रहालय, जहां रोम के स्वर्णिम इतिहास को कांच के भीतर संजो कर रखा गया होगा। बगल में सूचनाओं की पट्टी लगी होगी और शब्दों में गौरवशाली इतिहास का ब्योरेवार बखान होगा। यह मालूम था कि कुछ प्राचीन इमारतें देखने को मिलेंगी, लेकिन यह एहसास नहीं था कि वे इस कदर हमारे करीब होंगी कि हम उनमें से गुजर सकेंगे। दो हजार साल पहले चिने गए फर्श पर हम देसी जूते पहने आराम से टहल सकेंगे। हम उनकी पृष्ठभूमि में अपनी तस्वीरे खींच सकेगे।

रोम में इतिहास और वर्तमान के बीच कोई दीवार नहीं खींची गई है। ना ही उनकी घेराबंदी कर उन्हें पुरातत्व या संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया। आप अभी एक सुपरमार्केट से निकलें और गली पार कर हजारों साल पुरानी किसी इमारत में घुस जाएं। शहर के हर कोने और नुक्कड पर इतिहास खडा नजर आता है और अपने पास बुलाता है। यह डराता नहीं है, क्योंकि अन्य देशों की तरह उन्हें अलग और कथित तौर पर सुरक्षित नहीं रखा गया है। रोम में इतिहास हमारा आलिंगन करता है। उसकी गोद में बैठकर हम चाहें तो सदियों के पदचाप को सुन सकते हैं। वहां की हवा में सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धुन मौजूद है, जो आधुनिक शोर में दबी नहीं है, बल्कि उससे मिल कर एक नई मधुर सिंफनी पैदा करती है। रोम में घूमते हुए तन पुलकित होता है और मन एक पींग में हजारों साल आगे-पीछे चला जाता है।

हम लोगों ने मुख्य रूप से कोलोसियम और वैटिकन सिटी के सेंट पीटर्स स्क्वॉयर का भरपूर आनंद लिया। हम वैटिकन सिटी के उस भव्यतम चर्च में भी गए, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके बाद किसी और चर्च में जाने और उसे देखने की जरूरत नहीं रह जाती। वैटिकन सिटी हमारी संक्षिप्त यात्रा में शामिल नहीं की गई थी। हमें समझाया गया था कि उसके लिए पहले से व्यवस्था करनी पडती है, लेकिन जहां चाह है, वहां राह है। हमारी गाइड जोवानी ने जुगाड लगा दिया। उसने हमें आराम से उस चर्च में प्रवेश करवा दिया और स्लीवलेस ड्रेस में साथ गई लडकियों के लिए आनन-फानन में बांहों को ढकने के लिए स्कार्फ की व्यवस्था भी करवा दी। हां, इस चर्च में स्लीवलेस ड्रेस पहन कर आप नहीं जा सकते और सिर पर कोई टोपी नहीं हो सकती। इस चर्च में रोमन कैथोलिक संप्रदाय के प्रमुख पोप भी आते हैं। जब वे वैटिकन सिटी में होते हैं तो आप उन्हें चर्च के बाहर लगे विशालकाय टीवी पर देख-सुन सकते हैं। हमें बताया गया कि उनका आवास चर्च से सटा हुआ है। हमारे प्रवास के समय वह छुट्टी पर थे। वैटिकन सिटी संप्रभुता संपन्न है। यहां इटली के नियम-कानून नहीं चलते। कोलोसियम अद्भुत ऐतिहासिक वास्तु है। हजारों सालों से धूप, पानी, प्राकृतिक विपदा और राजनीतिक संकटों से गुजरने के बाद भी इसकी भव्यता और रौनक मानव इतिहास की उस बलवती चाहत का सबूत है कि मनोरंजन के लिए हमारे पूर्वजों की सोच आधुनिक जगत से वृहत और विशद थी। ईसा से 700 साल पहले इस शहर की नींव रखी गई थी और तब केवल तीस हजार की आबादी थी। 70-75 ई में वेस्पेसियन राजा के काल में कोलोसियम के निर्माण की शुरुआत हुई और टाइटस के जमाने में यह पूरा हो सका। कोलोसियम वास्तव में प्राचीन स्टेडियम की तरह है, जहां खेल-कूद और मनोरंजन का आयोजन हुआ करता था। इसमें 60,000 लोग बैठ सकते थे। और कोलोसियम के इतने द्वार रखे गए थे कि विभिन्न तबके के दर्शक अलग-अलग रास्तों से सुनिश्चित सीटों तक पहुंच सकें। उन्हें एक-दूसरे की राह नहीं काटनी पडती थी। भूकंपों के बाद कोलोसियम अब आधा-अधूरा बचा है, लेकिन उसकी भव्यता नष्ट नहीं हुई है। वह आज भी पूरी है। आज भी इसकी विशालता और बीच का मैदान देखकर उस हुंकार को सुना और समझा जा सकता है, जो ग्लैडिएटरों की लडाई के समय भरा जाता होगा। कहते हैं कोलोसियम में आयोजित खेल-कूद और खतरनाक आयोजनों में कम से कम पांच लाख व्यक्तियों और दस लाख से अधिक जानवरों की जानें गई होंगी।

मिटा नहीं है रोम। वह जिंदा है और उसकी धडकनों को आसानी से सुना जा सकता है। रोम प्राचीन शहर है, लेकिन वह उतना ही आधुनिक और माडर्न भी है। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं वहां की हवा में सांस लेकर लौटा और अपने साथ उस इतिहास का स्पर्श ले आया। हम लोग रोम के मशहूर पब में भी गए। जहां डीजे ने हमें देखते ही पंजाबी भांगडा सुनाना चालू कर दिया। हम आकाश के सलेटी होने और पब के दरवाजे बंद होने तक वहां रहे। जैसे चुपके से हमने शहर में प्रवेश किया था। वैसे ही रोम के जागने के पहले हम एयरपोर्ट पहुंच चुके थे। वहां से हमें फ्रांस की राजधानी पेरिस जाना था।


Tuesday, July 28, 2009

डेली रूटीन से ऊब जाता हूं: सैफ


-अजय ब्रह्मात्मज


छोटे नवाब के नाम से मशहूर सैफ अली खान अब निर्माता बन गए हैं। उनके प्रोडक्शन हाउस इलुमिनाती फिल्म्स की पहली फिल्म लव आज कल इस शुक्रवार को रिलीज हो रही है। फिल्म के निर्देशक इम्तियाज अली हैं और हीरोइन दीपिका पादुकोण हैं। लव आज कल की रिलीज के पहले खास बातचीत।
आप उन खास और दुर्लभ बेटों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी मां के प्रोफेशन को अपनाया। ज्यादातर बेटे पिता के प्रोफेशन को अपनाते हैं?
मेरी मां भी दुर्लभ एवं खास हैं। इस देश में कितनी मां हैं, जो किसी प्रोफेशन में हैं। मैं तो कहूंगा कि मेरी मां खास और दुर्लभ हैं। एक सुपर स्टार और मां ... ऐसा रोज नहीं होता। मेरी मां निश्चित ही खास हैं। उन्होंने दोनो जिम्मेदारियां बखूबी निभाई।
मां के प्रोफेशन में आने की क्या वजह है?
बचपन में मुझे क्रिकेट का शौक था। कुछ समय खेलने के बाद मुझे लग गया था कि मैं देश का कैप्टन नहीं बन सकता। इतना टैलेंट भी नहीं था। पढ़ाई में मेरी रुचि नहीं थी। कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती थी। फिल्मों के बारे में सोचा तो यह बहुत ही एक्साइटिंग लगा। फिल्मों में नियमित बदलाव होता रहता है। रोल बदलते हैं, लोकेशन बदलते हैं, साथ के लोग बदलते हैं ... यह बदलाव मेरी पर्सनैलिटी को बहुत जंचता है।
फिल्म निर्माण के साथ जुड़ा एडवेंचर और बदलाव ...
जी कभी रात में काम कर रहे हैं, कभी दिन में ... कभी पनवेल में तो कभी लंदन में। कभी इनके साथ तो कभी उनके साथ। यह सब अच्छा लगता है। डेली रूटीन मुझे बचपन से बहुत पकाता था।
मतलब दस से पांच की नौकरी और पांच दिनों के टेस्ट मैच जैसे रूटीन में आप की रुचि नहीं थी?
टेस्ट मैच को इसमें शामिल न करें। मैं क्रिकेट बहुत पसंद करता हूं। वह तो मेरे खून में है। नौकरी मैं नहीं कर सकता था। लोखंडवाला से रोज वर्ली जाना और आना ... नहीं यार, मेरे बस का नहीं था। मेरी रुचि नहीं थी।
कुछ मकसद रहा होगा फिल्मों में आने का?
मैं इस प्रोसेस का आनंद लेना चाहता था। बचपन से फिल्में देखता रहा हूं। मैं फिल्ममेकिंग के प्रोसेस का हिस्सा बनना चाहता था। क्लिंट इस्टवुड की फिल्में देख कर बड़ा हुआ हूं।
बचपन में कितनी हिंदी फिल्में देखते थे?
ज्यादा नहीं। मां की फिल्में देख कर बहुत दुखी हो जाता था, क्योंकि बहुत रोना-धोना होता था उनकी फिल्मों में।
आप जो सोच कर फिल्मों में आए थे, वह सब अचीव कर लिया।
नहीं, अभी नहीं किया है। थोड़ा-बहुत किया है। बाकी अब प्रोडक्शन में आने के बाद कर रहा हूं। एजेंट विनोद के साथ उसे अचीव करना चाहता हूं।
कोई भी एक्टर जब डायरेक्टर या प्रोड्यूसर बनता है तो उसके दिमाग में रहता है कि मुझे अभी तक जो मौके नहीं मिले, उन्हें हासिल करूंगा। या फिर उनकी कुछ खास करने की इच्छा रहती है। आप क्यों निर्माता बने?
निर्माता बनने की यही वजह है। क्रिएटिव कंट्रोल मेरा रहे। कैसी फिल्म बनानी है। पोस्टर कैसा होगा? और ऐसे रोल जो हमें नहीं मिल पा रहे हैं, उन्हें हम खुद बनाएंगे। जैसे एजेंट विनोद, जैसे लव आज कल ...
आप कैसे तय करते हैं कि मुझे यह रोल करना चाहिए या वह रोल करना चाहिए? अपनी बनी हुई छवि से प्रभावित होता है यह फैसला या फिर दर्शकों ने जिसमें पसंद कर लिया ...
मेरी छवि क्या है? सलाम नमस्ते और हम तुम के चॉकलेट हीरो की छवि ़ ़ ़ लेकिन मैंने ओमकारा किया और लोगों ने मुझे पसंद किया। रेस अलग फिल्म थी। दोनों ही फिल्मों में मेरे रफ रोल थे, लेकिन दर्शकों ने पसंद किया। मुझे लगता है कि मैं दोनों कर सकता हूं।
एक विकासशील देश में एक्टर होना कितनी बड़ी बात है और इस के क्या सुख हैं?
बहुत बड़ी बात है। कितने लोग एक्टर बन पाते हैं इस देश में। कितनी समस्याएं हैं। बिजली नहीं है। म्युनिसिपल ऑफिस जाओ। हम बहुत ही भाग्यशाली हैं। हम किसी लाइन में खड़े नहीं होते। दर्शक हम से ज्यादा मांग नहीं करते। आप अच्छे लगो ... तो आधी लड़ाई खत्म। अच्छे लगने के लिए जिम जाना और कसरत करना जरूरी हो जाता है।
एक्टर होने के लिए और क्या चीजें जरूरी हैं?
बहुत चीजें जरूरी हैं। लुक और शरीर तो अच्छा होना ही चाहिए। साफ दिमाग हो, जो आंखों में नजर आता है। आप साफ दिल हों। दुनिया और जिंदगी की समझदारी होनी चाहिए। मेरे हिसाब से कैरेक्टर और पर्सनैलिटी अच्छी होनी चाहिए। भारत में बच्चे सब सुनते, देखते और पढ़ते हैं कि सैफ ने ऐसे किया ... हम लोग रोल मॉडल बन जाते हैं। हमें सावधान रहना चाहिए। एक जिम्मेदारी होती है।
इस जिम्मेदारी से आप कितना बंधते या खुलते हैं?
एक्टर के तौर पर फर्क नहीं पड़ता। मैंने निगेटिव रोल भी किए हैं। हमारा ऑन स्क्रीन और ऑफ स्क्रीन इमेज होता है। हमें दोनों का ख्याल रखना चाहिए। मुझे अपने बारे में छपी-दिखाई सारी बातें पता चलती हैं। अभी मैं जिंदगी में च्यादा स्थिर हूं। पहले इतना नहीं था।
आप छोटे नवाब कहे जाते रहे हैं। उसके साथ कहीं न कहीं यह जुड़ा रहा कि देखें छोटे नवाब क्या कर लेते हैं? क्या आपको लगता है कि अपने परिवार की वजह से आप निशाने पर रहें?
परिवार की वजह से हमारा स्पेक्ट्रम बड़ा हो जाता है। इसके फायदे भी होते हैं, लेकिन परेशानियां भी होती हैं। अगर असफल रहे तो कहा जाता है कि देखो क्या किया? मां-बाप इतने काबिल और मशहूर, लेकिन बेटे को देखो। अगर सुपरस्टार बन गए तो कहा जाता है कि यह तो होना ही था। आखिर बेटा किस का है?
बीच में आप ने बुरा दौर भी देखा। किस वजह से इंडस्ट्री में बने और टिके रहे?
मेरे पास विकल्प नहीं थे। मैंने तय कर लिया था कि हिलना नहीं है। मैंने यहां आने के बाद अपने पुल जला दिए थे। लौटने का रास्ता नहीं बचा था।
पहली फिल्म के लिए इम्तियाज अली को चुनने की कोई खास वजह थी क्या?
बहुत सी बातें थी। उनके पास नया आइडिया था। मुझे वही पुरानी चीज नहीं बनानी थी। मुझे वह परफेक्ट लगे। मुझे लव स्टोरी फिल्म ही बनानी थी, लेकिन थोड़ी बोल्ड स्टोरी बनानी थी। देखें क्या होता है? फिल्म की कहानी इम्तियाज लेकर आए थे।
आपकी पहली डबल रोल फिल्म है। कितना मुश्किल या आसान रहा इसे निभाना?
यों समझें कि दो फिल्में एक साथ कर लीं। इसमें एक रोल में सरदार हूं। मुझे इस रोल में देखकर सरदार खुश होंगे। हम ने उसे बहुत आंथेटिक रखा है। इतना मुश्किल नहीं होता है डबल रोल करना। मैनरिच्म अलग रखना पड़ता है। दूसरे रोल में सरदार होने की वजह से मैनरिच्म खुद ही अलग हो गया।

क्या है लव आज कल?
यह रिलेशनशिप की कहानी है। आज के जमाने में संबंधों को निभाने में कितनी समस्याएं हैं। सातवें दशक का प्यार थोड़ा अलग था। लंबे समय के बाद मिलते थे। इंतजार रहता था। पहले शादी करते थे, फिर प्यार के बारे में सोचते थे। उस समय के प्यार को देख कर आज के लड़के-लड़की रश्क करेंगे। आज की प्रेम कहानी में करियर बहुत खास हो गया है। लड़कियों का रोल और समाज में स्थान बदल गया है। मां के जेनरेशन और हमारे जेनरेशन में फर्क आ गया है। आज ऐसा लगता है कि दो व्यक्ति एक साथ रहते हैं। दोनों की वैयक्तिकता बनी रहती है।
आप को खुद लव स्टोरी कितनी अच्छी लगती है?
मैं एक्शन, एक्शन कॉमेडी और थ्रिलर फिल्में च्यादा पसंद करता हूं। मुझे लव स्टोरी च्यादा अच्छी नहीं लगती। लव स्टोरी में काम करता हूं। मैं बनाना भी चाहता हूं, क्योंकि देश देखना चाहता है। मुझे व्यक्तिगत रूप से ओमकारा और रेस जैसी फिल्में पसंद हैं।
फिर भी हिंदी फिल्मों की कौन सी लव स्टोरी आप को अच्छी लगी है?
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, कयामत से कयामत तक, मैंने प्यार किया, दिल, ... आमिर खान की काफी फिल्में ... मां के समय की बात करूं तो आराधना और अमर प्रेम ...
प्यार में सबसे जरूरी क्या है?
सम्मान ... और भरोसा।
सचमुच प्यार बदल गया है?
प्यार का एहसास नहीं बदला है। प्यार दिखाने का तरीका बदल गया है। दबाव बदल गए हैं। पहले टीवी का एक ही चैनल था। अभी इतने चैनल आ गए हैं। आप एक चैनल से ऊबते ही दूसरे चैनल पर चले जाते हैं। प्यार भी ऐसा ही हो गया है। थोड़ी मुश्किल आती है तो भूल जाते हैं। दिलासा दिलाने के लिए काम का बहाना है।
क्या यह पश्चिमी प्रभाव की वजह से हो रहा है?
नहीं, यह अंदरूनी मामला है। हम कहते रहते हैं कि गोरे लोग बड़े खराब होते हैं और हम अच्छे हैं। वास्तव में हम भी उतने ही खराब हैं। हम भारतीय क्या हैं? मौका मिले तो अम‌र्त्य सेन की किताब पढें़। उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से विश्लेषित किया है। हम इटली के माफिया की तरह हैं। हम मुंह पर कुछ और, पीठ पीछे कुछ और बोलते हैं। फिल्म इंडस्ट्री में भी सामने बोलेंगे कि क्या फिल्म बनाई है और पीठ पीछे बोलेंगे कि क्या बकवास बनाई है? अगर बेटी किसी लड़के से मिलवा कर कहे कि इस से शादी करनी है तो उस लड़के से कहेंगे कि वाह तुम बहुत अच्छे हो। उसके जाते ही बेटी से कहेंगे कि खबरदार उससे दोबारा मिली। बहुत घटिया इंसान लगता है।
आप आम इंसान की तरह जी पाते हैं क्या? आप तो सुपर स्टार सैफ अली खान हैं?
मैं बहुत ही नार्मल हूं। चाट खना, पानी पुरी खाना ... कहीं भी जाओ। जिम पैदल जाता हूं। शुरू में लोग चौंकते हैं, फिर उन्हें आदत पड़ जाती है। मुंबई में दिक्कत नहीं है। दूसरे शहरों में कभी-कभी लोगों की वजह से दिक्कत होती है। लेकिन आप पैसे कमा रहे हो, तरक्की कर रहे हो तो लंदन चले जाओ। आप चाहते हो कि कोई न पहचाने तो वैसे शहर में जाकर घूमो, जहां कोई नहीं जानता।
क्या ऐसा लगता है कि आप समाज को जितना देते हैं, उतना ही समाज भी आपको देता है?
ज्यादा ही देता है। हम तो आज के राजा-महाराजा हैं। हमें नेताओं से ज्यादा इज्जत मिलती है। एक फोन करने पर सब कुछ मिल जाता है।
अपनी तीन फिल्में मुझे गिफ्ट करनी हो तो कौन-कौन सी देंगे?
ओमकारा, हम तुम और परिणीता।
फिल्म इंडस्ट्री के किन लोगों से आप मुझे मिलवाना चाहेंगे। वैसे लोग, जिनकी आप इज्जत करते हों और जो सचमुच आप को इंडस्ट्री के प्रतिनिधि लगते हैं?
डायरेक्टर में करण जौहर ... करण ने दुनिया को देखा और समझा है। एक वजह है कि वे ऐसी फिल्में बनाते हैं। वे लंदन देख चुके हैं। पेरिस उनका देखा हुआ है। फ्रेंच बोलते हैं। अमेरिका में रह चुके हैं। वे भारतीय दर्शकों को समझते हैं। उन्हें मालूम है कि यह फिल्म बनाऊंगा तो सबसे ज्यादा पैसा मिलेगा। इम्तियाज अली ... इम्तियाज आर्टिस्ट मिजाज के हैं। घूमंतू किस्म के हैं। काफी कूल और तेज है। श्री राम राघवन ... इतने अच्छे इंसान हैं और सिनेमा की बहुत अच्छी समझ रखते हैं। अनुराग बसु और विशाल भारद्वाज भी हैं। शाहरुख खान से मिलवाऊंगा। उनका दिमाग बहुत तेज चलता है और वे बहुत इंटरेस्टिंग बात करते हैं फिल्मों और दुनिया के बारे में। शायद आमिर से मिलवाऊंगा। लड़कियों में करीना से ... और भी बताऊं।
फिल्म इंडस्ट्री की सबसे अच्छी बात क्या लगती है?
डेमोक्रेसी ... आप यहां बुरी फिल्म नहीं चला सकते। यहां जो लोगों को पसंद है वही चलेगा। बाकी फील्ड में आप कुछ भी थोप सकते हैं, यहां नहीं। किसी का नियंत्रण नहीं है इंडस्ट्री पर। थिएटर में दर्शक आएं और तीन बार देखें तो फिल्म हिट होती है।
इस फिल्म की रिलीज के पहले आप की कैसी फीलिंग है?
यह फिल्म मेरे लिए बहुत जरूरी है। तनाव तो है। 31 जुलाई तक मैं बीमार न पड़ जाऊं? यह बच्चे के जन्म की तरह है। एक तो सुरक्षित डिलिवरी हो और बच्चा सही-सलामत हो। कुछ चीजें तो जन्म के बाद तय होती है?
लव आज कल को क्यों देखें?
इसमें नयापन है। इम्तियाज से संवाद ऐसे हैं, जो दो असली लोग बात कर रहे हों। एक लव स्टोरी है। आज के दबाव और कमिटमेंट के बारे में ... एक संदेश भी देती है फिल्म। हमेशा दिमाग की न सुनें, दिल की भी सुनें। इसमें कोई विलेन नहीं है। दिमाग ही विलेन है।

Monday, July 27, 2009

किस्मत पर भरोसा है तो मकाऊ चलें


-अजय ब्रह्मात्मज
आप क्या कभी गोवा गए हैं? अगर समुद्र तट के अलावा वहां की गलियों और पुराने गोवा में घूमने का अवसर निकाल पाए हों, वहां की इमारतें, सडकें, चर्च और मंदिर याद हों तो मकाऊ में उनकी झलक आप महसूस करेंगे। भारत के पश्चिम में स्थित गोवा और चीन के दक्षिण पूर्व में स्थित मकाऊ में यह अद्भुत समानता उनके समान औपनिवेशिक अतीत के कारण है। भारत और चीन के इन प्रदेशों पर कभी पुर्तगालियों का राज था। दोनों ही जगह पुर्तगाली धर्म, भाषा और संस्कृति के अवशेष अभी तक बचे हुए हैं। मकाऊ में कुछ ज्यादा, क्योंकि उन्होंने पुर्तगाली अवशेष और संपर्क को पर्यटन के आकर्षण में बदल दिया है।
सदियों तक पुर्तगाल के अधीन रहने के बाद मकाऊ चीन को वापस मिल चुका है, लेकिन हांगकांग के तर्ज पर चीन ने इसे विशेष प्रशासनिक क्षेत्र बना रखा है। समझौते के मुताबिक हांगकांग और मकाऊ की प्रशासनिक व्यवस्था में सुपुर्दगी के अगले पचास सालों तक कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए आर्थिक रूप से समृद्ध हांगकांग और मकाऊ में एक देश, दो व्यवस्था की नीति के तहत ज्यादा छेडछाड नहीं की है। दोनों ही प्रदेशों से चीन को पर्याप्त आमदनी होती है और इन प्रदेशों के अमीर चीन की अर्थव्यस्था को मजबूत करते हैं।
मकाऊ आने का सुगम मार्ग हांगकांग के रास्ते है। वैसे चीन के सीमांत शहर शनचन, क्वांगतुंग और लानचओ से भी मकाऊ पहुंचा जा सकता है, लेकिन उसके लिए पहले चीन जाना होगा। हांगकांग और मकाऊ जाने के लिए भारतीय नागरिकों को पहले से वीजा लेने की जरूरत नहीं पडती। हांगकांग एयरपोर्ट पर आसानी से वीजा मिल जाता है। हांगकांग से मकाऊ के लिए फेरी लेनी होती है। हांगकांग एयरपोर्ट से बंदरगाह तक बसें आती-जाती हैं। हांगकांग से मकाऊ की फेरी यात्रा का अपना आनंद है। नीले लहराते समुद्र पर फिसलती फेरी और दूर-दूर तक फैला पानी का साम्राज्य.. 15-20 मिनट की दूरी से मकाऊ के आलीशान होटल झिलमिलाने लगते हैं। मकाऊ जैसे-जैसे नजदीक आता जाता है, वैसे-वैसे शहर की निशानियां स्पष्ट होने लगती हैं।
मकाऊ में जेटी से बाहर निकलते ही रिक्शे पर ऊंघते रिक्शा चालकों को देख कर अजीब सा सुखद एहसास होता है। तीन पहियों की मनुष्यचालित यह सवारी अत्याधुनिक मकाऊ में सांस्कृतिक विरासत के तौर पर बचा कर रखी गई है। विदेशी यात्री कौतूहल से रिक्शे पर बैठने का आनंद लेते हैं। मकाऊ में मुख्य आबादी चीन मूल के नागरिकों की है। दूसरी जाति और राष्ट्रीयताओं के दस प्रतिशत लोग ही यहां रहते हैं। वैसे मकाऊ चीन का हिस्सा बन चुका है, लेकिन मुख्य भूमि चीन के नागरिकों को मकाऊ आने की आजादी नहीं मिली है। उन्हें विशेष अनुमति लेनी पडती है।
भारतीय मूल के मकाऊ पर्यटन विभाग के कर्मचारी अलोरिनो नोरुयेगा ने रोचक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि जो चीनी अपनी विपन्नता के कारण मकाऊ नहीं आ पाते, वे एक विशेष स्टीमर से मकाऊ को घेर रही नदी में दो घंटे की यात्रा करते हैं। वे दूर से मकाऊ की संपन्नता देखते हैं और उसकी आलीशान इमारतों की पृष्ठभूमि में अपनी तस्वीरें खिंचवाकर संतुष्ट हो लेते हैं। मकाऊ विशेष प्रशासनिक क्षेत्र के आय का मुख्य स्रोत कैसिनो, होटल और पर्यटन हैं। हर साल लाखों विदेशी पर्यटक और यात्री यहां आते हैं। यहां के कैसिनो में 5 सेंट से लेकर करोडों डॉलर तक के दांव लगते हैं। पुरानी कहावत है कि जुआघर से हर जुआरी हार कर निकलता है। किसी रात कोई जीत गया तो अगली रात वह दोगुनी रकम हारता है। इसी दर्शन से मकाऊ के जुआघर आबाद हैं और यहां के कुछ होटलों में आप चौबीसों घंटे किस्मत का दांव चल सकते हैं। कहते हैं कि पिछले साल मकाऊ प्रशासन को इतनी आमदनी हुई कि उसने अपने प्रत्येक नागरिक को 6000 पताका (मकाऊ की करेंसी) दिए। एक पताका साढे सात रुपये के बराबर होता है।
यह मकाऊ में ही मुमकिन है, क्योंकि वहां की कुल आबादी 549,200 है। भारत के मझोले और छोटे शहरों की भी आबादी इस से ज्यादा होती है। मकाऊ कुल 29.2 वर्ग किलोमीटर इलाके में बसा है। तीन टापुओं के इस प्रदेश को यातायात के लिए पुलों से जोडा गया है। ज्यादातर पर्यटक और यात्री अत्याधुनिक मकाऊ की चकाचौंध में खो जाते हैं। आलीशान होटलों की सुविधाओं और कैसिनो के चक्कर में फंस गए तो आप मकाऊ की आबोहवा से अपरिचित रह जाएंगे। आलीशान होटलों में न तो जमीन दिखती है और न आकाश। हर प्राचीन शहर की तरह मकाऊ की अपनी खूबियां हैं, जिन्हें शहर में घूम कर ही समझा और महसूस किया जा सकता है। चंद डालर बचाने की कोशिश में किसी शहर की धडकन को सुनने से महरूम रहने की गलती न करें। मकाऊ जैसे छोटे शहर को आप दो-तीन दिनों में आराम से देख-सुन सकते हैं।
बेहतर तरीका है कि मकाऊ पर्यटन विभाग की बसें ले लें या फिर जिस होटल में ठहरें हों, वहां से निजी व्यवस्था कर लें। दूसरा आसान तरीका है कि किसी भी कोने से टैक्सी लेकर शहर के मध्य में आ जाएं और फिर नक्शे की मदद से पैदल घूमें। यकीन करें पैदल घूमते हुए आप शहर के रंग, गंध और स्वाद को अच्छी तरह महसूस कर सकेंगे। सेनाडो स्क्वॉयर के पास उतर जाएं तो ऐतिहासिक इमारतों, वास्तु और भग्नावशेषों के साथ आज के शहर को भी देख सकते हैं। यह मकाऊ का मध्यवर्गीय इलाका है। सडक के किनारे बने फूड स्टाल, बेकरी, किराना और कपडों की दुकानों से कुछ खरीद कर आप अपनी यादें समृद्ध कर सकते हैं। शाकाहारी होने पर थोडी दिक्कत हो सकती है, लेकिन अगर आप मांसाहारी हैं तो मकाऊ की खास व्यंजन विधि के जायके से खुद को वंचित न रखें।
मकाऊ की विशेष व्यंजन शैली है, जिसे मैकेनिज कहते हैं। यह चीनी, पुर्तगाली, भारतीय और अफ्रीकी पाक कला का स्वादिष्ट मिश्रण है। चीनी खाद्य पदार्थ, भारतीय मसाले और बनाने की पुर्तगाली विधि से एक नया स्वाद तैयार हो गया है। याद रखें कि इस व्यंजन शैली का आनंद सिर्फ मकाऊ में ही उठा सकते हैं। 2049 तक मकाऊ आज की ही प्रशासनिक स्थिति में रहेगा। उसके बाद संभव है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी यहां कुछ बदलाव करे। फिलहाल यहां की मुक्त अर्थव्यवस्था से लाभ उठाने के लिए विदेशी निवेशक धन लगा रहे हैं। मुख्य रूप से कैसिनो और होटल व्यवसाय में ही ज्यादा निवेश है। उधर भारत और चीन के बीच व्यापार बढने से चीन में लाखों भारतीयों का आना-जाना लगा रहता है। तफरीह के लिए उनमें से कई मकाऊ आते हैं और वे कैसिनो में अपना भाग्य आजमाते हैं।
पिछले महीने मकाऊ में आईफा अवार्ड समारोह का आयोजन हुआ। भारतीय फिल्म स्टारों की चहल-पहल ने मकाऊ को भारतीय मानस में बिठा दिया है। मकाऊ प्रशासन को उम्मीद है कि इस साल भारतीय पर्यटकों की संख्या में इजाफा होगा। क्या आप उनकी उम्मीद पूरी कर रहे हैं?

Wednesday, June 03, 2009

४ जून १९८९ को याद कसरें तो...

4 जून, 1989 से कुछ हफ्ते पहले से बीजिंग में असंतोष और विरोध की सुगबुगाहट महसूस की जा सकती थी। बीजिंग और एक-दो अन्य विश्वविद्यालय के छात्रों ने लोकतांत्रिक मांगों को लेकर हड़ताल आरंभ कर दी थी। सुधारवादी कम्युनिस्ट नेता हू यायोपिंग के निधन को छात्रों, बुद्धिजीवियों और कम्युनिस्टों से नाराज राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने अपने लोकत्रांत्रिक अभियान के प्रस्थान के रूप में चुना। 15 अप्रैल को हू यायोपिंग की मौत के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए छात्रों के साथ नागरिकों की भीड़ भी थ्येन आन मन स्क्वायर पर स्थित शहीद स्मारक पहुंची। शहीद स्मारक के स्तंभ से सटा कर रखी हू की तस्वीर पर अनगिनत फूल मालाएं चढ़ीं। उस रात निरभ्र आकाश में चमकता चांद लोगों के शोक और संताप को ठंडे भाव से निहारता रहा था। अगले दो-तीन दिनों तक श्रद्धांजलि का तांता लगा रहा। बीस साल पहले के उन दिनों को याद करें तो दस सालों से चल रहे आर्थिक सुधारों के बावजूद देश की आर्थिक स्थिति में गुणात्मक सुधार नहीं आ पाया था। दूसरी तरफ पिछले दस सालों में मिली सीमित राजनीतिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कम्युनिस्ट पार्टी के विरोधियों को यह भ्रम हो गया था कि उनकी लोकतंत्र की गुहार पश्चिमी देश, खास कर अमेरिका सुनेगा। वह चीन पर अंकुश लगाएगा, जो कालांतर में कम्युनिस्ट पार्टी की समाप्ति का कारण बनेगा। हमेशा की तरह अमेरिकी एजेंसियां चीन में सक्रिय थीं।
इस दौर में कम्युनिस्ट प्रशासन पहले की तरह निरंकुश न होकर एक उदार छवि पेश करने के साथ अपने आर्थिक सुधारों और विदेशी पूंजी निवेश के लिए सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश में था। कतिपय विरोधियों को यह स्थिति अपने अनुकूल लगी थी। 21 अप्रैल को हू के अंतिम संस्कार से पहले 20 अप्रैल को चुंगनानहाए के सामने बैठी भीड़ को प्रशासन ने जबरन हटा दिया। छात्रों ने 21 अप्रैल तक बीजिंग विश्वविद्यालय में हड़ताल कर दी। इस हड़ताल को कुछ शिक्षकों का भी समर्थन मिला। दूसरे विश्वविद्यालय और कैंपसों में भी विरोध की सुगबुगाहट महसूस की गई। शहीद स्मारक के पास के छोटे से हिस्से में दिन-रात भीड़ लगी रही। छात्रों की हड़ताल ने बाद में क्रमिक भूख हड़ताल का रूप ले लिया। अभियान को नागरिकों का मिलता समर्थन और स्थिति बिगड़ती देख कम्युनिस्ट पार्टी और प्रशासन ने आवश्यक कदम उठाए। वे पहले की तरह इस बार जबरदस्ती अभियान को दबाना नहीं चाहते थे। उन्हें उम्मीद थी कि परस्पर बातचीत से विरोध का उफान समाप्त हो जाएगा। उन्होंने पार्टी के नेता चाओ चियांग को छात्र नेताओं से बातचीत करने के लिए भेजा। चाओ चिंपाग ने छात्रों से बातचीत में कहा था कि तुम सब जवान हो, क्यों भूख हड़ताल कर अपनी जान दे रहे हो? हम बूढ़े हो चुके हैं। उनके इस कथन को व्यापक कवरेज मिला। ऐसा लगा कि शायद कोई राह निकलेगी, लेकिन उसके बाद ही कम्युनिस्ट प्रशासन ने सख्त रवैया अपनाया। 20 मई को मार्शल ला लागू कर दिया गया। छात्रों को लगा कि अब वे विजय के निकट हैं। 30 मई को प्लास्टर आफ पेरिस से बनी लोकतंत्र की देवी की श्वेत मूर्ति थ्येन आन मन स्क्वायर में आ गई। अमेरिकी लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाने के पर्चे बांटे गए और शहर के विभिन्न इलाकों और शैक्षणिक संस्थाओं से जुलूस आने लगे। देखते-देखते थ्येन आन मन स्क्वायर झंडे, बैनर, कार्टून, पर्चो और लोगों से भर गया।
आखिरकार अभियान को दबाने की अंतिम मुहिम 3 जून को शुरू हुई। बगैर किसी घोषणा के टैंक से लैस सेना थ्येन आन मन स्क्वायर में घुसी। सेना ने चारों दिशाओं से एक साथ मार्च किया। गोलियां चलीं। लोग मारे गए। छात्र नेता भाग खड़े हुए। चूंकि पूरा अभियान एक उफान की तरह था और उसके पीछे कोई ठोस राजनीतिक सोच नहीं थी, इसलिए देखते ही देखते आंदोलन बिखर गया। कम्युनिस्ट प्रशासन ने अपनी तरफ से उस अभियान का कोई निशान शेष नहीं रहने दिया। निश्चित रूप से चीन के नेतृत्व ने उस आंदोलन और अभियान का दमन किया। 4 जून, 1989 की घटना के परिप्रेक्ष्य में यह भी उल्लेखनीय है कि उस आकस्मिक विरोध को दबाने के बाद चीन राजनीतिक और आर्थिक रूप से बिखरने से बच गया। अन्य कम्युनिस्ट देशों की तरह चीन में अस्थिरता नहीं आई। उस घटना को बीस साल हो गए और लगभग इतने ही साल हुए अंतरराष्ट्रीय राजनीति से दूसरे धु्रव को समाप्त हुए। एकध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय समीकरण के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। अगर 4 जून, 1989 को चीन के असंतुष्ट विजयी हो गए होते तो पूरा एशिया आज की स्थिति में नहीं होता। शायद भारत के लिए खतरे और बड़े एवं खतरनाक होते।