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Wednesday, January 22, 2014

हम ही हैं हिंदू और मुसलमान

-अजय ब्रह्मात्‍मज 

क्या मैं हिंदू हूँ?
मेरा नाम अजय ब्रह्मात्मज है। अजय नाम का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। यह आधुनिक और सेक्यूलर नाम है। ब्रह्मात्मज नाम से जन्म से मिली मेरी जाति का संकेत नहीं मिलता। यह सरनेम मेरे पिता सुखदेव नारायण ने दिया। परंपरा के हिसाब से मेरा नाम अजय नारायण होना चाहिए था, लेकिन मेरे पिता निश्चित रूप से अपने समकालीनों से ज़्यादा आधुनिक और प्रगतिशील रहे और हैं कि उन्होंने हम सभी भाइयों के नाम में माँ का नाम ब्रह्मा जोड़ा। ब्रह्मात्मज यानी ब्रह्मा और आत्म और ज यानी ब्रह्मा की आत्मा से पैदा हुआ यानी उसका बेटा इस तरह हम सभी अपनी माँ के बेटे हो गए। प्रसंगवश पिताजी ने मेरी बहन के सरनेम में अपने नाम का एक अंश जोड़कर उसका नाम सुनीता देवात्मजा रखा था।
अजय ब्रह्मात्मज नाम बताते ही स्पष्ट हो जाता है कि मैं हिंदू परिवार का सदस्य हूँ। मेरी पृष्ठभूमि हिंदुओं की है। मुझे हिंदू कहलाने से कोई परहेज़ नहीं है। लेकिन क्या मैं वही हिंदू हूँ, जो हमेशा मुसलमानों के विरोध में माने जाते हैं। सच कहूँ तो मेरी कोई धार्मिक और आध्यात्मिक आस्था नहीं है। मेरी माँ हिंदू परिवारों में प्रचलित सारे व्रत करती रही, लेकिन उसने कभी बाध्य नहीं किया कि हम बेटे उन व्रतों के उपवास या पूजा इत्यादि में शामिल हों। अब वह लगभग सारे व्रत छोड़ चुकी है। कारण पूछने पर वह कहती है अब क्या ज़रूरत हैं मुझे मेरे सारे बच्चे सुखी-संपन्न हैं। मिडिल स्कूल के समय से ही धार्मिकता और पूजा-पाठ से मेरी विरक्ति हो गई। पारिवारिक पृष्ठभूमि से हिंदू होने के नाते मैं मंदिरों में परिजनों के साथ जाता हूँ। प्रतिमाओं के आगे हाथ भी जोड़ता हूँ, लेकिन उन प्रतिमाओं के प्रति कोई श्रद्धा या पूजनीय भाव नहीं महसूस करता। शायद ऐसे व्यक्ति को नास्तिक कहते हैं और हिंदू परंपरा में ऐसे व्यक्तियों के लिए भी जगह है। इसी कारण न तो मुझे हिंदू धर्म से निष्कासित करने की ज़रूरत समझी गई और न मुझ पर दबाव डाला गया कि खुद को हिंदू सत्यापित करने के लिए मैं झूठे धार्मिक आडंबर और आचरण ओढ़ लूँ।
बहरहाल, बिहार से निकलकर पढ़ने के लिए दिल्ली आया। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नामांकन लेने के बाद नर्मदा हॉस्टल में कमरा नंबर ''511'' मिला। इस कमरे में हम तीन यानी मैं, खुर्शीद अनवर और मिथिलेश पाठक थे। कुछ कारणों से मिथिलेश पंद्रह दिनों से ज़्यादा उस कमरे में नहीं टिक सके। बाद में हम दोनों (खुर्शीद और मैं) रह गए। खुर्शीद अनवर इलाहाबाद से आया था। मुझे नहीं लगता कि अल्लाह में उसकी कोई आस्था थी। हाँ, कभी-कभी अम्मीजान की याद आ जाती तो कान पकड़कर दो-चार बार तौबा करता और फिर माफ़ी माँग लेता। एक सुबह न जाने उसे क्या सूझी हो सकता है वह अल्लाह के अस्तित्व को लेकर परेशान रहा हो उसने सुबह-सुबह पूछा अजय तू यार अपने देवी-देवता को नहीं मानता, मैं भी अल्लाह के सजदे में नहीं रहता, लेकिन अगर कहीं देवी-देवता और अल्लाह हुए तो हमारा क्या होगा? मरने के बाद तेरी दुर्गति होगी और कयामत के रोज़ में क्या जवाब दूँगा। सवाल पूछने के बाद वह कुछ देर तक सोचता रहा और फिर जैसे सब कुछ झाड़कर बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। रहें खुदा अपनी जगह कैंपस में ही उसने एक कथित हिंदू लड़की से शादी कर ली। उसने अपने बेटे का नाम समर रखा है।
क्या खुर्शीद अनवर मुसलमान है?
खुर्शीद से मेरी दोस्ती आज भी बरकरार है। बस वह दिल्ली में रहता है और मैं मुंबई में कभी-कभार वह फ़ोन कर लेता है और मैं भी हाल-चाल पूछता रहता हूँ। खुर्शीद से हुई मुलाकात के पहले दो कथित मुसलमानों से मेरा परिचय रहा। एक तो मेरे पिताजी के कार्यालय में चपरासी थे। चारखाने की लुंगी, बाँह वाली गंजी, पैरों में हवाई चप्पल, गंजा सिर और घनी दाढ़ी स़ेना की नौकरी से रिटायर होने के बाद वह आए थे, इसलिए नियम-कानून सख़्ती से पालन करते थे। सबसे पहले उन्हें क़रीब से देखने का मौका मिला वह हमारी तरह दातुन करने के बाद उसका चीरा कर जीभ साफ़ नहीं करते थे। वह दातुन फेंकते भी नहीं थे। हमें हैरत होती थी। हम उनका दातुन चोरी से फेंक देते थे तो हमें उनकी डपट सुननी पड़ती थी। माँ ने उनके लिए एक कप अलग रखा था। उसी में उन्हें चाय मिलती थी। सिर्फ़ उनके लिए ही नहीं, बाकी मुसलमान मेहमानों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था थी। अलग ग्लास, अलग बर्तन और थोड़ा अलग आचरण वहीं एक मास्टर थे सईद मियाँ। सफ़ेद धोती और सफ़ेद कमीज़ पहनते थे मालूम नहीं अभी हैं या नहीं? पिताजी से उनकी निभती थी। वह ऑफ़िस के काम में भी पिताजी की मदद करते थे। क़रीबी होने के कारण ईद के दिन उनके यहाँ से बुलाहट रहती थी। वह मास्टर बन गए थे, लेकिन उनके पिता चिक (कसाई) थे और उनके छोटे भाई दर्ज़ी थे। सईद मियाँ के परिवार से हमारे परिवार का रिश्ता इतना था कि हर हफ़्ते उनके पिताजी मांस भेजा करते थे और हमारे कपड़े उनके भाई सिलने लगे थे। ईद के दिन हमारा पूरा परिवार उनके यहाँ खाने पर जाता था। माँ नहीं जाती थी। माँ के लिए सईद मियाँ सेवइयाँ हमारे साथ भेजा करते थे। हम लोग जब तक बिहार के उस कस्बे में अरेराज में रहे, तब तक सईद मियाँ हमारे परिवार के अतिरिक्त सदस्य के रूप में रहे। हर वक्त-ज़रूरत पर मौजूद और मदद के लिए तैयार। वह धार्मिक आस्था के व्यक्ति थे। नमाज़ पढ़ते थे और नियम से सभी त्योहारों का पालन करते थे। मैं उनके साथ ताजिया के जुलूस में शामिल हो चुका था। एक बार उन्हीं के साथ मस्जिद भी गया था। क्या उनके दिमाग़ में उस समय यह बात नहीं आई होगी कि क्यों वह एक हिंदू को मस्जिद में ले जा रहे हैं। कस्बे में तो मौलवी भी जानते थे कि मैं किस परिवार से हूँ, लेकिन उन्हें भी कोई गुरेज नहीं हुआ था।
सईद मियाँ के परिवार में मेरा आना-जाना था। उनके आँगन और घर के कमरों में भी हम चले जाते थे। उनकी बीवी, माँ और बहनों के साथ बेहिचक बातें करते थे। उनके व्यवहार से कभी ऐसा आभास नहीं हुआ कि वे किसी दबाव में हमारे साथ सामान्य रहती हैं। झिझक और विवशता छिपी नहीं रह सकती। वह बात-व्यवहार में आ ही जाती है।
और फिर चीन का प्रवास, इस प्रवास में कई मुसलमान दोस्त बने। कुछ कट्टर और खांटी मुसलमान तो कुछ उदार और अपने मज़हब को गाली देने वाले मुसलमान ए़क रहमान साहब थे। पाकिस्तान के करांची शहर के सिगरेट, शराब और संगत के शौकीन। उनकी सबसे प्रिय गायिका लता मंगेशकर थीं। उन्होंने मेरे कमरे में एक बार शारदा सिन्हा (बिहार की लोक गायिका) को सुन लिया तो उनके नाम एक ख़त मेरे हाथों भिजवाया। उनके पिता भारत से माइग्रेट कर गए थे, लेकिन केवल उनका शरीर पाकिस्तान गया था, दिल भारत में ही छूट गया था। रहमान साहब भी बचपन की धुंधली यादों से गाँव का नक्शा बनाते थे और पुरबिया बोली में दो-चार गालियाँ सुना देते थे। मशहूर थ्येनआन मन घटना के समय भारत से गए तीन विख्यात लेखकों को मैं घुमाने कहीं ले गया था, तभी ''4 जून'' की घटना घट गई थी। शहर में अचानक कर्फ्यू का माहौल बन गया था। सारी सवारियाँ बंद हो गई थीं, तब उस पाकिस्तानी मुसलमान रहमान ने अपनी कार में मृणाल पांडे, विजय तेंदुलकर और अनंतमूर्ति को बिठाकर उनके होटल छोड़ा था। एक पाकिस्तानी मुसलमान ने चंद भारतीय लेखकों (तीनों कथित हिंदू) के लिए क्यों जोखिम उठाया? असमंजस में हूँ क्या रहमान सिर्फ़ मुसलमान थे।
सालों बाद अब मेरी बेटियाँ बड़ी हो रही हैं। बड़ी बेटी के दोस्तों में कई मुसलमान लड़के हैं। उसका अंतरंग दोस्त अली है। उसे हम सभी अच्छी तरह जानते हैं। मेरी माँ भी उससे मिल चुकी है। मेरी माँ ने, पत्नी ने या मैंने उसके मुसलमान होने पर अलग से ग़ौर ही नहीं किया। क्या वह सचमुच मुसलमान मुसलमान यानी हिंदुओं के जाती दुश्मन तो फिर उसकी कैसे दोस्ती हो गई मेरी बेटी से? क्या वह मुसलमान नहीं है या फिर वह भी हमारी तरह असमंजस में हैं।
हिंदू और मुसलमान दो पहचान हैं या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मुझे लगता है पृष्ठभूमि और परिवार से मिली पहचान से हम हिंदू या मुसलमान हैं लेकिन हम में से अधिकांश वैसे हिंदू या मुसलमान नहीं हैं, जो एक-दूसरे की तबाही चाहते हैं। नाहक हम शक के घेरे में आ गए हैं या कुछ स्वार्थी ताकतें हमें एक-दूसरे के खिलाफ़ तोप की तरह इस्तेमाल करना चाहती हैं।
वे अपने मक़सद में कामयाब नहीं होंगे, क्यों कि सईद मियाँ पिताजी के दोस्त रहे हैं। मेरा दोस्त खुर्शीद अनवर है, जो अपनी मसरूफ़ियत में भी मेरी बीमारी की ख़बर सुनकर सहम जाता है और मेरी बेटी का दोस्त अली है। हम सभी आज़ाद भारत के विभिन्न दौरों में हमकदम आगे बढ़ते रहे हैं। गुज़र जाएगा शक-ओ-सुबहा का यह वक्त, क्यों कि ज़िंदगी लंबी है और चलती रहती है, नफ़रत तो एक पल का नाम है क्षणिक घटना है, नकारात्मक भावनाओं का उद्रेक है।
सिटीजन फॉर पीस और इंडियन एक्सप्रेस द्वारा आयोजित द्वितीय वार्षिक निबंध प्रतियोगिता, ''2006'' में अजय ब्रह्मात्मज के ''हम ही हैं हिंदू और मुसलमान'' शीर्षक निबंध को हिंदी श्रेणी में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस बार निबंध का विषय था- 'हम जैसे नहीं : नागरिकों की दुविधा।'

Tuesday, March 15, 2011

बनारस भारत का अदभुत शोकेस है!

-अजय ब्रह्मात्‍मज

नारस… वाराणसी… काशी… उत्तरप्रदेश में गंगा के तट पर स्थित इस प्राचीन नगर का जीवंत एहसास वहां जाकर ही किया जा सकता है। सदियों से पुण्यभूमि और तीर्थभूमि के रूप में प्रसिद्ध बनारस आज भी पर्यटकों, तीर्थयात्रियों और अन्वेषकों को निमंत्रित करता है। बनारस हर व्यक्ति के लिए अलग रूप से उद्घाटित होता है। धर्म, दर्शन और साहित्य से संपूर्ण मानव जगत का हित साधनेवाला यह शहर किसी घने रहस्य की तरह आकर्षक है।

बनारस का उल्लेख आते ही हमें बनारसी साड़ियों की याद आती है। लाल, हरी और अन्य गहरे रंगों की ये साड़ियां हिंदू परिवारों में किसी भी शुभ अवसर के लिए आवश्यक मानी जाती हैं। उत्तर भारत में अधिकांश बेटियां बनारसी साड़ी में ही विदा की जाती हैं। बनारसी साड़ियों की कारीगरी सदियों पुरानी है। जड़ी, बेलबूटे और शुभ डिजाइनों से सजी ये साड़ियां हर आयवर्ग के परिवारों को संतुष्ट करती हैं, उनकी जरूरतें पूरी करती हैं। सुहाग का प्रतीक मानी जाती हैं बनारसी साड़ियां। पारंपरिक हिंदू समाज में बनारसी साड़ी का महत्व चूड़ी और सिंदूर के समान है। उत्तर भारत की विवाहित और सधवा स्त्रियां विवाह के अवसर पर मिली इन साड़ियों को बड़े यत्न से संभालकर रखती हैं। टिन के बक्सों में अखबारों से लिपटी इस साड़ी के साथ जीवन के हसीन मोड़ विवाह की यादें जो जुड़ी होती हैं। केवल खास-शुभ अवसरों पर ही स्त्रियां इन साड़ियों को पहनती हैं।

बनारस अपने घाटों के कारण भी प्रसिद्ध है। सुबह के सूर्य की बलखाती व इठलाती ललछौंही प्रथम किरणों के आगमन के पहले ही ये घाट जाग जाते हैं। सलेटी रोशनी में आकृतियां घाटों की सीढियां उतरने लगती हैं। सुबह की नीरवता में हर डुबकी के साथ आती ‘छप’ की आवाज रात की तंद्रा तोड़ती है। धीरे-धीरे बजती घंटियों की लय एक कोरस बन जाती है और नगर जागता है। बनारस नगर अवश्य है, मगर यहां नगर की आपाधापी नहीं है। बनारस की क्षिप्र लय ही इसे बिखरने और बदलने से बचाती है। यहां सबकुछ धीरे-धीरे होता है। कुछ भी अचानक नहीं होता किसी आश्चर्य की तरह। बनारस के हिंदी कवि केदारनाथ सिंह की पंक्तियां हैं…

इस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है

धीरे-धीरे बजते हैं घंटे

शाम धीरे-धीरे होती है।

यह धीरे-धीरे होना

धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय

दृढ़ता से बांधे है समूचे शहर को

बनारस वरुणा नदी और अस्सी नदी के बीच गंगा तट पर बसा है। यहां गंगा की दिशा बदल जाती है। पश्चिम से पूर्व की ओर बहती गंगा बनारस में उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। पावन गंगा के किनारे बने घाटों की सीढियां बरसों से भारतीय समाज की आस्था को सहारा देती हैं। बनारस किसी नये यात्री के लिए पूरा तिलिस्म है। यह तिलिस्म धीरे-धीरे खुलता है। सच है कि बनारस को जल्दबाजी में नहीं महसूस किया जा सकता। यहां के जीवन की लय आत्मसात करने के बाद ही आप इस शहर की धड़कन अपने अंदर सुन सकते हैं। बनारस जीवन और मृत्यु को जोड़ता जीवंत शहर है। यह संसार की नश्वरता का परिचय देता है। यहां मृत्यु शोक नहीं, मुक्ति है। आश्चर्य नहीं कि देश के कोने-कोने से लोग यहां पहुंचते हैं चिरनिद्रा के लिए। कहा जाता है कि बनारस में मृत्यु का वरण करें तो जीवनचक्र से मुक्ति मिल जाती है। विधवा, अशक्त और निरीह प्राणियों को मृत्यु के पूर्व जीवन देता है बनारस।

अस्सी घाट और राजघाट के बीच अनगिनत घाट हैं, इनमें से मुख्य है दशाश्वमेध घाट। दशाश्वमेध घाट पर कपड़ों और कैनवास की बनी छतरियों के नीचे बैठे पंडे बनारस की खासियत हैं। वे पुण्य, परमार्थ और मुक्ति में सहायता करते हैं आपकी। व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी पंडिताई आक्रामक हो चुकी है, फिर भी वह खींचती है अपनी तरफ। दशाश्वमेध से कुछ दूरी पर स्थित हैं मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट। ये दोनों घाट हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार के लिए प्रसिद्ध हैं। चिता से उठती लपटें भौतिकता से ग्रस्त तीर्थयात्रियों को जीवन की नश्वरता का संकेत देती हैं। आप यहां वितृष्णा से नहीं भरते और न ही विचलित होते हैं। आप जीवन के प्रति गंभीर हो जाते हैं। आपका अहं टूटता है यहां। पुनर्संस्कार करते हैं बनारस के घाट।

बनारस मंदिरों का शहर है। काशी विश्वनाथ, संकट मोचन, मानस मंदिर आदि श्रद्धालु हिंदुओं के प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं। बनारस के विश्वनाथ का महात्म्य कुछ अधिक है। अन्य मंदिरों में भी भीड़ लगी रहती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ शहर के बाहर से आये श्रद्धालु ही इन मंदिरों में दर्शन के लिए आते हों। बनारस स्वयं आध्यात्मिक शहर है। धर्म और आध्यात्म यहां के निवासियों के जीवन में है। यह उनकी आदत है। सुबह-सुबह गंगा जाने से आरंभ हुई दिनचर्या में मंदिर भी शामिल हैं।

बनारस के बारे में प्रसिद्ध दार्शनिक मार्क ट्वेन ने कहा था कि यह शहर इतिहास और किंवदंतियों से भी पुराना है। निश्चय ही, वे इस शहर के इतिहास के बारे में बातें नहीं कर रहे थे। वे शहर के जीवन में मौजूद इतिहास और किंवदंतियां देख रहे होंगे। बनारस के रोजमर्रा के जीवन की मस्ती उसे दूसरे शहरों से अलग करती है। चाय और पान की दुकानों पर दुनिया भर की समस्याओं को सुलझाते बनारसी सिर्फ समय बिताने के लिए ऐसा नहीं करते। वे उसमें लीन होते हैं। वे अपने पक्ष में तर्क देते हैं, बहस करते हैं और किसी अन्य की समस्या पर हाथापाई करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं।

बनारसी पान दुनिया भर में मशहूर है। बनारसी पान चबाना नहीं पड़ता। यह मुंह में जाकर धीरे-धीरे घुलता है और सुवासित कर देता है मन को भी। बनारस जाने पर वहां इसे अवश्य चखें। बनारसी चाट का चटपटा स्वाद जीभ पर ठहर जाता है। यह अनोखा है। अनोखी हैं यहां की मिठाइयां। रबड़ी, रसगुल्ला, मलाई और छेने की अन्य मिठाइयां सिर्फ मुंह मीठा नहीं करतीं। वे आपके व्यक्तित्व में भी मिठास घोलती हैं। मशहूर कचौड़ी गली की खुशबू आपको आगे नहीं बढ़ने देगी।

कहते हैं कि कई विदेशी पर्यटक बनारस आने के बाद फिर से अपने देश नहीं लौट सके। वे बनारसी हो गये। ढल गये यहां की सादगी और धीमी रफ्तार जिंदगी में। एक व्यक्ति और क्या चाहता है? सुख, शांति और संतुष्टि … यह शहर इस दृष्टि से उपयुक्त है। इसी शहर में आप उस्ताद बिस्मिल्ला खान जैसे मशहूर शहनाई वादक को तहमद बांधे गलियों में आराम से घूमते देख सकते हैं (यह निबंध उस वक्‍त लिखा गया था, जब बिस्मिल्‍ला खां जीवित थे : मॉडरेटर)। दिखावा नहीं है इस शहर में। इस शहर में जीवन की मस्ती है। उसे भरपूर जीने की ललक है। बनारस भौतिकता और ओढ़ी हुई जीवनशैली को अनावृत्त करता है। वह सहज कर देता है आपको।

बनारस भारत का अदभुत शोकेस है। इस शोकेस में भारतीय धर्म और अध्यात्म की परंपराएं, विभिन्न जीवनशैलियां, सदियों का सांद्र अनुभव और भारतीय समाज की तंद्रिल आस्थाएं मौजूद हैं। बनारस शहर कौतूहल पैदा करता है। वह उस कौतूहल को शांत भी करता है, अगर आप हड़बड़ी में न हों। अंत में फिर से केदारनाथ सिंह की पंक्तियों में कहें तो,

किसी अलक्षित सूर्य को देता हुआ अर्घ्‍य

शताब्दियों से इसी तरह

गंगा के जल में

अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर

अपनी दूसरी टांग से बिल्कुल बेखबर।

क्या आपने इस शहर को देखा है? अगर नहीं तो अवश्य जाएं और स्वयं का साक्षात्कार करें बनारस के आईने में

Sunday, November 28, 2010

सांस्कृतिक कलाइडोस्कोप है टोरंटो

-अजय ब्रह्मात्‍मज

टोरंटो शहर के हर कोने से सीएन टावर दिखाई पडता है। आधुनिक वास्तु का यह नमूना शहर की शान और आन है। टोरंटो घूमने आए हर पर्यटक की निगाह में इसकी ऊंचाई अटकती है। पहली सुबह ही हमें टोरंटो के स्थानीय गाइड ने बता दिया था कि आप अगर भटक जाएं तो इस टावर को देखें। इस से अपने ठिकाने की दिशा और दूरी का अनुमान लगा सकते हैं। सीएन टावर समेत टोरंटो के ज्यादातर दर्शनीय वास्तु और स्मारकों की उम्र सौ साल के आसपास ही है। एक नए शहर के पास सदियों का इतिहास नहीं होता। टोरंटो में सबसे पुराना वास्तु खोजने चलें तो उसकी तारीख 1794 निकलती है। इस शहर में सब कुछ 220 सालों के अंदर बना है। टोरंटो शहर का भ्रमण करा रही लिंडा ने आत्मगौरव के साथ कहा कि आप भारत के हैं। आप का इतिहास हजारों साल पुराना है। कनाडा अपेक्षाकृत नया देश है, इसलिए हमारे यहां 60-70 साल पुरानी इमारतें और चीजें भी पुरातात्विक महत्व की मानी जाती है। हम उसी पर गर्व करते हैं।

सांस्कृतिक क्लाइडोस्कोप

कनाडा के आधुनिक शहर टोरंटो को सांस्कृतिक क्लाइडोस्कोप कहा जाता है। यहां विभिन्न संस्कृतियां और जातियां इस तरह घुल-मिल गई है कि वेशभूषा, बोली और चाल-ढाल में भिन्नता होने पर भी कई समानताएं दिखती हैं। मशहूर ब्लॉगर समीर लाल कई सालों से टोरंटो में रहते हैं। वह इस शहर की तारीफ में कहते हैं, टोरंटो में हर संस्कृति के लिए पर्याप्त स्पेस है। एक-दूसरे की सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियां परस्पर हस्तक्षेप नहीं करती।ं बगैर किसी भाषण और नारे के समभाव और सौहा‌र्द्र दिखाई पडता है। इस बात की पुष्टि हमारे सांस्कृतिक गाइड ने भी की। उन्होंने बताया कि यहां एक ही गली में चर्च और मस्जिद है। मस्जिद के दरवाजे रविवार को चर्च के मास के लिए खोल दिए जाते हैं और जुमे की नमाज के लिए चर्च के अहाते में भी सजदा करने की जगह मिल जाती है। अपेक्षाकृत नए और आधुनिक देश को विरासत में कोई सांस्कृतिक कडवाहट नहीं मिली है, इसकी वजह से रोजमर्रा जिंदगी की मुश्किलें पैदा ही नहीं होतीं। टोरंटो एक प्रकार से विदेशियों से पटा शहर है। दुनिया के हर कोने से लोग यहां रोजगार की तलाश में आए। नए शहर ने उनकी पुरजोश अगवानी की और उनकी आजीविका का इंतजाम किया। इस दशक की शुरुआत में टोरंटो में चीनी मूल के नागरिकों की संख्या सबसे अधिक 4 लाख 50 हजार थी तो भारतीयों की संख्या भी 4 लाख थी। उनके अलावा अफ्रो-कैनेडियन, इथोपियन, सोमाली, ग्रीक, पोल, पुर्तगाली, वियतनामी और हिस्पानिक हैं। अगर विभिन्न देशों और जातियों का जमावडा एक साथ देखना हो तो हॉकी या फुटबाल के व‌र्ल्ड कप के समय किसी स्टेडियम के आगे खडे हो जाएं। कहा जाता है कि टोरंटो शहर में कम से कम सौ देशों के लोग खुशहाल जिंदगी जी रहे हैं। उन्हें किसी प्रकार का डर या खौफ नहीं है। वे अपनी भाषा बोलते हैं। इस शहर की आधी आबादी तो दूसरे शहरों में पैदा हुई है। वे सभी आकर यहां बसे हैं। उन्होंने टोरंटो को अपना घर बना लिया है। चीन, भारत, इटली के वासियों ने अपने मोहल्ले बना लिए हैं, जहां देश विशेष के खान-पान और पहनावे आसानी से मिल जाते हैं।

लिटिल इंडिया

टोरंटो में एक भारत भी है। यंग स्ट्रीट के पूर्व में ग्रीकवुड एवेन्यू और कॉक्सवेल एवेन्यू के बीच अचानक कानों में लता मंगेशकर की आवाज सुनाई पड सकती है। किसी गली में मुन्नी बदनाम हुई की स्वर लहरियां दरवाजा खुलते ही बाहर छिटक आती हैं। दोपहर और शाम का वक्त हो तो रेस्तरां के भारतीय किचेन से तेल-मसाले की भीनी और तीखी गंध से पैर अनायास उन रेस्तरां की ओर मुडते हैं। जाहिर सी बात है कि सामने भेलपुरी और गोलगप्पे का स्टाल लगा हो तो आते ही आप भारत में मुंबई की चौपाटी, दिल्ली के चांदनी चौक और बनारस की गलियां में चाट से मुंह बिचकाते रहे हों, लेकिन यहां मन मचल उठता है। विदेश की धरती पर गोलगप्पे और पान का मजा मजेदार तथ्य है कि लिटिल इंडिया में सिर्फ भारतीयों की दुकानें नहीं हैं। यहां पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, नेपाली और श्रीलंकाई भी मिल जाएंगे। वे सभी मिल-जुल कर भारत या यों कहें कि दक्षिण एशिया का आनंद उठाते हैं। एक स्थानीय दुकानदार ने बताया कि सबसे पहले किसी भारतीय ने यहां दुकान खोली थी। वह चल पडी तो उसके आसपास दुकानें बढने लगीं। फिर तो साडियों से लेकर सब्जियां-फलों तक के भारतीय स्वाद की चीजें नजर आने लगीं। यहां चीकू, लंगडा आम और इलाहाबादी अमरूद भी मिल जाता है। भारतीय व्यंजनों के रेस्तरां में सीटें बुक करवानी पडती हैं और दूसरे देशों के भोजनप्रेमियों की गाडियों की कतारें दिखती हैं। अद्भुत नजारा होता है लिटिल इंडिया का टोरंटो में बसे और रमे छोटे भारत का।

लहरों पर तैरते इंद्रधनुष

कभी टोरंटो का कार्यक्रम बने और वह महज 24 घंटे का भी हो तो नायग्रा फॉल्स जरूर जाएं। इस विशाल और प्रवाहपूर्ण झरने के छीटों और बौछारों से खुद को नहीं भिगोया तो धरती पर मौजूद एक परम सुख से वंचित रह जाएंगे। आप स्वयं सुरक्षित हों तो जलप्रवाह मुग्ध करता है। जलप्रवाह का दर्शन सोच को गति देता है और हमारे गरल जीवन को सुख का तरल स्पंदन देता है। हम उन क्षणों में वास्तविक दुनिया के छल-प्रपंच भूल जाते हैं। विशेष स्टीमर से जब पर्यटक अमेरिकन फॉल्स के पास से गुजरते हैं तो समय और रोशनी के हिसाब से इंद्रधनुष के मृगछौने आगे-पीछे दौडते और लहरों पर तैरते नजर आते हैं। नदी की सतह और झरने से गिरते पानी की फुहारों पर इंद्रधनुष की सतरंगी झिलमिल को कैमरे में कैद किया जा सकता है। यों लगता है कि अभी हाथ बढा कर उन्हें मुट्ठी में कस लें और जेबों में भर कर अपने घर लौटें। ऐसा न कर सके तो भी उन पलों की याद से वर्तमान के उदास क्षणों में आप झिलमिल उजास भर सकते हैं। नायग्रा अमेरिका और कनाडा की सीमा पर स्थित प्राकृतिक प्रपात है। इसका एक हिस्सा अमेरिका में पडता है और दूसरा हिस्सा कनाडा में अमेरिका न गए किसी भारतीय के लिए अमेरिकी जमीन देखने का एहसास भी रोमांचक होता है। साथ गए मित्रों में मैंने वह रोमांच देखा। ऐसा लगा कि वश चले तो वे स्टीमर से कूद कर अमेरिकी जमीन पर खडे होने का अनुभव ले लें। नायग्रा फॉल्स का अमेरिकी हिस्सा छोटा है। उससे लगभग ढाई गुना चौडा और डेढ गुना ऊंचा है कनाडा का हिस्सा, इसलिए वह ज्यादा खूबसूरत, ओजपूर्ण और प्रवाहमय लगता है। अगर आप सावधान नहीं हुए तो कामचलाऊ बरसाती पहनने के बावजूद झरने की फुहारों से तरबतर हो सकते हैं। थोडी देर के लिए उन फुहारों से कोहरे की चादर तन जाती है और झरने का फेनिल प्रवाह का दृश्य गड्डमड्ड होने लगता है। उम्र आडे नहीं आती है, क्योंकि सब कुछ भूल कर लोग किलकारियां मारते हैं और उस घडी को हमेशा के लिए अपने अंदर भर लेते हैं। लौटते समय आप नायग्रा ऑन लेक का आनंद उठा सकते हैं। साफ-सुथरी सडक के दोनों ओर बनी पारंपरिक दुकानों में ट्रैडिशनल सामान और कलाकृतियां मिलती हैं। हाथ से बनाए दशकों पुराने स्वाद के चाकलेट और केक मिलते हैं। नायग्रा ऑन लेक से आगे बढने पर टोरंटो के रास्ते में वाइनरी मिलती हैं। अंगूर लताओं के फैले खेतों के बीच बनी वाइनरिज में किसिम-किसिम की ह्वाइट वाइन और रेड वाइन का निर्माण होता है। यहां की आइस वाइन का विशेष नाम है। सर्दी में शून्य के नीचे के बर्फीले तापमान में लताओं में ही ठंड से पत्थर हो चुके अंगूरों को हाथों से तोडा जाता है और फिर विशेष प्रक्रिया से आइस वाइन को तैयार किया जाता है। इस आइस वाइन की मिठास वाइन के शौकीनों की अंतरात्मा तक को मीठा कर देती है।

फिल्मों का आकर्षण

कनाडा का टोरंटो शहर अपने फिल्म फेस्टिवल के लिए भी मशहूर हो चुका है। हर साल सितंबर महीने में आयोजित दस दिनों के इस फेस्टिवल में दुनिया के आधे देशों की फिल्में शामिल होती हैं। इस महीने में अगर आप टोरंटो में हों तो पूरा शहर सिनेमा में भिगा नजर आता है। दुकानों और गलियों में फेस्टिवल से संबंधित पोस्टर, बैनर और सामग्रियों को सजाया जाता है। फेस्टिवल के लिए निश्चित थिएटर दुल्हनों की तरह सजे होते हैं, जहां दुनिया भर से आए फिल्म प्रेमी और फिल्म समीक्षक शिरकत करते हैं। इस साल वहां किरण राव की धोबी घाट, अनुराग कश्यप की द गर्ल येलो बूट्स, आमिर बशीर की हारूद और सिद्धार्थ श्रीनिवासन की पैरों तले का प्रदर्शन हुआ। इन दिनों टोरंटो और उसके आसपास हिंदी फिल्मों की शूटिंग बढ गई है। हाल ही में अनीष बज्मी की फिल्म थैंक्यू की शूटिंग करने अक्षय कुमार, बॉबी देओल, सुनील शेट्टी सोनम कपूर,सेलिना जेटली और इरफान खान वहां पहुंचे थे। चूंकि टोरंटो में प्रवासी भारतीयों की संख्या बहुत ज्यादा है, इसलिए हिंदी फिल्मों के पर्याप्त दर्शक हैं।